मेरे अंतस में निर्विकार
प्रेम की नदियां
बर्फीली वादियों में जमे
खंजर की तरह
ले चुकी हैं आकार देह में
अदृश्य रूपों का
तमाम चुभती हैं खौफ़नाक
मंज़र की तरह
मौखिक नहीं हो पाते मेरे अक्षरों के बिंब
गुजरते हैं मगर ख़ामोशी की गली से
तुम तक पहुंचते पहुंचते
नमक की डली के जैसे
घुल जाती हैं हसरतें
समंदर सा नमकीन हो गया हूं
गिरफ़्तार हैं मेरे जिस्म में
बर्फीली रातों में कंबल के जैसी
तुम्हारी यादें
तुम्हारा प्रेम लिपटा है
किसी बेल की तरह अनंत
मेरे ह्रदय के वृक्षों पर
देता हूं शीतल छाया, साया
बरगद सा मज़बूत होता हूं
पुराने दरख़्त की तरह
लताओं में खोता हूं
कुछ सियाह कुछ सफ़ेद करके
तमाम ज़िंदगियों को ढोता हूं
मैं आदमी हूं साहब
बिन आसूंओं के रोता हूं
किसी गीले उपले की भांति
धूं धूं करके जलता हूं
फिर भी ईंधन की खातिर
रोज़ काम पर निकलता हूं !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
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