प्रेम, मोहब्बत, इश्क़ बहुत नाम हैं इस एहसास के, लेकिन इश्क़ एक ऐसा लफ्ज़ है जिस पर शायरी, शेर, ग़ज़ल और नज्म सबसे ज्यादा लिखे गए हैं जब भी किसी शेर में मैंने इश्क़ को पढ़ा ना जाने क्यूँ लगा की मोहब्बत जब खोने-पाने, मिलने-मिलाने की हद से बहुत दूर निकल जाती है तब वो इश्क़ की सरहदों को छूते हुए कलम तक पहुचं ही जाती है।
यहीं से एक शायर का जन्म होता है, मोहब्बत की राह से गुज़र कर इश्क की सरहद तक के इस हसीं सफ़र में जिस भी उतार-चढ़ाव और एहसास से एक शायर रु ब रु होता है उसे उतर देता है कागज़ों पर और उनमें से कुछ शेर अमर हो जाते हैं फिर उसे हर मोहल्ले, कसबे, गावं शहर और देश में हर प्यार करने वाला अपने-अपने एहसास खोजता है और कभी अपने हमसफ़र के लिए दोहराता है, अपने वतन के लिए गुनगुनाता है, अपने दोस्तों को सुनाता है और अपने दुश्मनों पे भी कभी कभी कुछ बोल ही जाता है।
इश्क़ 2 लाइन शायरी | Ishq 2 Line Shayari
दरख़ास्त ख़ुदा के दर से ये लिख कर लौट आयी,
कि इश्क़ में महबूब का हर गुनाह मुआफ़ है ताबीर।
कलम, इश्क़ के मौसम से, ख़ुशनुमा हो रही है,
तहरीर, सावन दर सावन, अब जवां हो रही है।
बाक़ी सब जाने दो, बताना ज़रा, एक ऐब मेरा,
सिवा इसके, कि तुमसे इश्क़ है, बे-खौफ है।
गैरत मर जाती है ‘ताबीर’ उस एक शख़्स के आगे,
इश्क़ वाले जिसे अकसर, महबूब कहते हैं।
पहरे मज़हब के हो या नकाब के
तेरे इश्क़ पे बंदिशें लगाये हैं।
तन्हा, हवाओं से ली है दुश्मनी,
तेरी मोहब्बत के चिराग जलाये हैं ।
चाहा था ये कि इश्क़,
काश हमें भी छु जाये,
फ़िर यूँ हुआ कि वो
महबूब बन कर चले आये ।
इश्क़……मोहब्बत…….प्यार……,
ज़रा गौर से देखो,
ये अधुरे ‘लफ्ज़’ कुछ कहते नहीं ।
कैसे मैं इश्क़ की तौहीन
गवारा कर लूँ,
जब बात यहाँ तक आ गयी है
तो कैसे किनारा कर लूँ ।
कभी निर्वस्त्र हो कर, महफ़िल में,
कभी अग्नि-परीक्षा की तपिश में जी।
मैंने, परंपराएं निभायी हैं, हर हाल में,
इश्क़ में, इंतजाम- ए- खलिश में भी।
कैसी मोहब्बत थी ये
ग़जब का इश्क़ था,
सांसे हुयी भी नहीं बंद,
जनाजे का एहतिमाम हो गया ।
बे-वजह मुस्कराहट की
वज़ह कहो “ताबीर”,
गर जायज़ लगी
तो हम भी इश्क़ फरमायेंगें ।
जो मर जाता है हर रोज़,
एक नये हुस्न पर,
उस शख़्स को,
‘इश्क़’ सिखायेगा कौन।
इस क़दर ही टूट करते,
बेशक़ बे-इन्तहा ही करते,
गर सोच कर होता इश्क़,
तो तुम से कभी ना करते।
सुनो रिहायी का वक़्त नज़दीक है,
कहो तो एक और गुनाह कर लूं,
इश्क़ हो गया आँखों की कैद से,
कहो तो कुछ दिन गुज़र कर लूं।
कितना पाकीज़ा है,इश्क़ भी,
बारिशों की तरह,
बरसते इसने,
कभी झोपड़ा-ओ-महल नहीं देखा।”
उसकी नफरत में, मिलावट है,
फक़त मोहब्बत की,
रूह इस क़दर तर है,
महक ए इश्क़ के खुमार में ।
चन्दन सा कर गया,
वो अपने इश्क़ से चाहकर,
सांप पहलू बदलते हैं,
ज़हर महकता सा पाकर।।
पेश किया जाये,
तमाम भाषा के रचनाकारों को,
मुझे “इश्क़, प्यार, मोहब्बत”,
हर लफ्ज़ मुकम्मल चाहिये।
कुछ तो ख़ुदा का ख़ौफ करो,
क़ोई तो इल्ज़ाम अपने सर कहो,
इश्क़ को मिले, रुतवा उसका भी,
क़ोई तो महबूब को भी ज़र कहो।
इश्क़ रिहा है, परे मह्ज़बी ज़्ंजीरों से,
तु क़ायनात मांगने चला है, इन फकीरों से।
तुम मेरी इजाज़त के मोह्ताज़ नहीं ‘ताबीर’,
इश्क़ बेबाक़ है, बेपरवाह है, बे-खौफ है।
कच्ची उम्र काइश्क़ था,
गुमराह कर गया बहुत,
वो चल दिया उस ओर,
मुझे किस ओर जाना है।
तकनीक इश्क़ की
इंसानी समझ से परे है,
तमाम उम्र रोता है वो ‘ताबीर’,
जो भी इश्क़ करे है।
निस्बत-ए-इश्क़ में निगाहें,
काविश, यार की ख़ातिर,
कासा-ए-चश्म उलझे रहें,
हुस्न-ए-दीदार में ‘ताबीर’।
मैं उसको हसरतों से देखूँ
वो निगाह फेर ले,
सफ़र इ इश्क़ में फकत
यही एक मंजर रहा
सुनो, मैं ‘इश्क़ का अन्धा’ हूं,
तुम तिश्नगी की बातें करते हो।
डेढ़ गज का इश्क़,
जब ख़ुदा कर ना सका मेरा,
वा’दा ए मुआवज़े से,
दो गज़ जमीं नाम कर दी।
लगता है इश्क़ ने छुआ नहीं अभी तक,
जो खुशनसीब होने का गुरूर बाकी है।
खंडहर करके मेरे दिल की जमीं,
वो कहीं और बरसा,
इश्क़ को ठुकरा के मेरे,
सुना है वो तमाम उम्र तरसा।
शिकायतें कहीं बहुत पीछे रह गयी,
हैरां हुं, दर्द से ही इश्क़ हो चला है।
दस्तार मेरे इश्क़ की
उसके हाथों से बंधी है,
नामुराद, नाकाम भले ही
मेरे फेरों के सितारे रहे।
तुम्हारे इश्क़ पर सियासत के बादल हैं “ताबीर”
वो बे-वजह उलझा आज़, किसी ग़ैर की खातिर।
ख़ुदा के लिखे का भी जबाब नहीं है “ताबीर”
बाद इश्क़ के, जुदाई को फिर नसीब बनाये है।
पहले दिल पे एक शख़्स की तसवीर सजाये है,
क्यूं फिर उसको किसी गैर की जागीर बनाये है।
दर्द की करवटों का पयाम अभी बाकी है,
आसूंओं में शिकवो का कोहराम बाकी है।
तु ही तु उतरा है, इस जिस्म की हर राह में,
रूह पे भी इश्क़ का निशान अभी बाकी है।
महज़ जख़्म नहीं,
इश्क़ का नासूर है ‘ताबीर’,
तमाम उम्र रिसेगा,
शिद्दत से यार की ख़ातिर।
मुर्दों ने भी, कब्र से,
सर उठा कर सलाम दिया।
इश्क़ में बर्बाद होने को,
ख़ुदा सा एहतराम दिया।
कितनी परछाईयां उभरती हैं, जहन के इन दरीचों में,
कोई तुझसा रहबर, रेहनूमा नहीं मिलता।
अनजान ही रह जाते, इश्क़ शय खुबसूरत से,
गर राह ए मंजिल में, तू मुसाफ़िर नहीं मिलता।
आब-ए-चश्म ना चूमे जमीं,
वो जालिम इश्क़ कैसा।
महबूब के हाथों जमा हो जाऊं,
फक़त इश्क़ में अब फ़ना हो जाऊं।
आरज़ू रही ना तम्मन्ना सिवा इसके,
तू मेरी हो जाये, मैं बस तेरा हो जाऊं।।
एक तजुर्बा है बड़ा गहरा है ‘ताबीर’
इश्क़ का मकाम बहुत कम ही पाते हैं।
तुम जान निकल कर दे दो फिर भी,
बदलने वाले बदल ही जाते हैं।।
इश्क़ नहीं मापता औकात किसी की,
इसने नहीं बख्शी रात किसी की।
लेकर महलों से झोपड़ी तलक,
तमाम रात जागी याद किसी की।
इश्क़ कर रहे हो या सौदा “ताबीर”
जो एक से नहीं हुआ तो दुसरा तैयार है।
मोहब्बत के खोटे सिक्के लेकर,
इश्क़ ख़रीदने को निकले थे हम।।
वो नायाब निकला गैर की ख़ातिर,
चिल्लर से अश्क खरीद लाये हम।
इश्क़ कर रहे हो या सौदा “ताबीर”
जो एक से नहीं हुआ तो दुसरा तैयार है।
इस शराब से जो इतना, जल रही हो तुम,
जज्बात को इश्क़ तले, कुचल रही हो तुम।
इश्क़ तुम थी माना, मगर शौक ये भी है मेरा,
बेवजह सौतन सी आग में, पिघल रही हो तुम।
तमाम रस्मे तोड़ कर, मेरे वक़्त ने पढ़ा तुझे,
कज़ा नहीं, ख़ुदा कहो, इश्क़ की जात निभाने दो।
है तुम्हें अब एतराज़, कि उसकी क्यूं हुँ,
हूँ हमसफ़र तेरी भला फिर इश्क़ की क्यूं हुँ।
गर उतरे हो किसी रूह में, तो मशवरा दो “ताबीर”
वरना मत पुछो, मैं ऐसी क्यूँ हूँ, मैं वैसी क्यूँ हूँ।
इश्क़ से खेले हो तुम, इश्क़ खेल गया है तुमसे,
तेरे इन लफ्ज़ों के बिखरने पे मैं इमान ले आया हूँ।
ये तजुर्बा इश्क़ का है या इश्क़ की गहराई का,
कहकहे खोद कर मैं हारा हुआ इन्सान ले आया हूँ।
सुनो बे वज़ह ही जहन में, इक़बाल कर बैठे,
दुआ ए इख्लास थी करनी, हम बबाल कर बैठे।
इक़्तिज़ा ए इश्क़ रही, क़ाबिल ए क़ुबूल रहीं,
हम आहिस्ता से कहीं इश्क़ पे सवाल कर बैठ।
सुनो, तुम्हारे लम्स से मुझे महक जाना है,
बाहों में सिमट के रूह तक बहक जांना है।
आओ करीब थोड़ा सा इश्क़ फरमाते है”ताबीर”
वक़्त का काम बहुत तेजी से गुज़र जाना है।
इश्क़ की राहों से, वाकिफ़ हो गये तुम ‘ताबीर’
एक तबका, इन रास्तों से, महरूम रहता है।
क्या मंजिले, क्या इंतज़ार, फक़त सजदे करो,
कहा करते हैं, महबूब में, ख़ुद ख़ुदा रहता है।
एक बड़े शायर को छू गयी है, नज़्म मेरी आज़,
कलम, अब दर्द-ए- इश्क़ के, राज़ देने लगी है।
बयां होने लगी शिददतें, मेरी गुफ्तगु में, ‘ताबीर’,
तमाशा, दर्द का मेरे, महफिल दाद देने लगी है।”
सुनो ‘ताबीर’ टूटे ख़्वाबों में, फिर से रंग भरना है,
आगाज़ ए इश्क़ करो तुम, मुझे अंजाम बदलना है।
राह- ए- मोहब्बत में बहुत पामाल हुआ, मेरा वुजूद,
ठहराव रास नहीं मुझे, मुझे कहीं दूर निकलना है।।”
मिरे इश्क़ का नशा ‘ताबीर’,
जुदाई के बाद भी, उसमें तारी रहेगा,
रूह तक उतर चुकीं थी उसकी,
वो उम्र भर, इस खुमारी में रहेगा।
इश्क़ ग़ज़ल | Ishq Gazal
तेरे इश्क़ की, मुझपर, यूँ, खुमारी होती गयी,
हर नजर, फिर मोहब्बत पर, भारी होती गयी।
दफायें खोजती रहती, महफ़िल, तोहमतों को,
तहरीरें, मेरे ख़िलाफ़, फिर जारी होती गयी।
इश्क़ का बही खाता, खुलने के बरस भर से ही,
जिंदगी मुझपर, दिन-ब-दिन उधारी होती गयी।
बरक़रार है, आज भी, उसके लम्स का सुरूर,
जुदाई के एहसास से बदहवासी तारी होती गयी।
वो लहराता रहा, हवा में, आबाद दामन की तरह,
मैं हमसफ़र होने की चाह में, किनारी होती गयी।
ना जाने कब बन बैठा, वो मेरी जिंदगी का देवता,
ना जाने कब इश्क़ करते-2 मैं, पुजारी होती गयी।
ख़ुदा कर देना इंसान को इश्क़ में, गुनाह है ‘ताबीर’
सजा लंबी होती गयी, इश्क़ मेरी बीमारी होती गयी।
इश्क़ भी ले जाओ तुम तमाम यादें भी ले जाओ,
मुझमें से तुम, नामुराद, वो शख़्स भी ले जाओ।
मैं नहीं कहती कि तुम, इन आंखो से ना धलको,
ऐ अश्कों, आज़ अपने साथ, ख़्वाब भी ले जाओ।
तजुर्बा-ए-मोहब्बत तो एक जुदा मसअला ठहरा,
वक़्त बे वक़्त की, फ़कत तुम बरसात ले जाओ।
कहकहे तो छोड़ो, मुस्कुराहटें भी गुमशुदा सी है,
करो हिसाब आज़, अपना बकाया भी ले जाओ।
फक़त मैं ग़मों का साथी हूं उसके,
खुशियों का कर्ज़दार कोई और है।
अंधेरा खींचता है उसे मुझ तलक,
उजालों का किरदार कोई और है।
मैं वारिस हूं, महज़ दर्द का ‘ताबीर’,
जायदाद का हक़दार कोई और है।
कातिल़ यादें आयी हैं मेरे हिस्से में,
मेरे महबूब का यार कोई और है।
वो तो टकराया था, इश्क़ बताने को,
शतरंज का शहरयार कोई और है।
चन्द लम्हे बा-मुश्किल मुकद्दर हुए,
ज़िंदगी का दावेदार कोई और है।
समंदर से तो याराना रहा है बरसों,
ये नाराज़ सी मंझधार कोई और है।
इश्क़ पे ज़ज्बात का खर्चा, ज़रा बचा के रखना,
शिकायत नहीं करना, फक़त मोहब्बत करना।
परवरदिगार की रहमत से है, जिस्म भी ये जाँ भी,
बाग़बाँ अपना ना फ़ज़ा अपनी न गुलशन अपना।
दस्त-ए-तलब है, इश्क़ के दहर को, एक जहां,
जश्न-ए-चराग़ाँ ना सही, तुम जेहन रौशन रखना।
है इश्क़ को फ़ुर्सत दरकार, ज़िंदगी को क़हक़हे,
मता-ए-दर्द को भुला,मिजाज़ खुशगवार रखना।
ख़ुदा को नापसन्द है, जुर्म-ए-ना-शुक्र-गुज़ारी,
अपने हाथों ना लुटा देना ‘ताबीर’ नशेमन अपना।
साल दर साल, महज़ उम्र बढ़ती है फकत जिस्म की,
अन्दर, आज़ भी मेरे, मासूम बच्चा बिलखता रहता है।
नोच कर मासूमियत, हालातों ने ही मजबूरियां थमा दी,
शाख से टूटा हुआ पत्ता, ठोकरों से उलझता रहता है।
तन्हाई-पसन्द, शौक से कहां होता है कोई फितरतन,
दोहरे किरदारों के, खौफ से ख़ुद में सिमटता रहता है।
गर एक दफा, अन्दर से उजड़ जाए, कहीं का नहीं रहता,
क्या बहार, क्या पतझड़, ख़ुद में ही भटकता रहता है।
मौत, कल आई थी दरवाज़े तक, मुस्कुरा कर कह गयी,
क़िस्मत का मारा ताबीर, मुझको को भी तड़पता रहता है।
सुनो, रातों की नींद, दिन का इत्मीनान ले गया,
अंधेरे की दुनियाँ, उजालों का फ़रमान ले गया।
ले गया मुझमें से वो मेरे अपने वुजूद का गुरूर,
जो उसके काम का नहीं था, वो सामान ले गया।
जिस शख़्स को मान लिया था, अपनी क़ायनात,
देख़ो, अपने साथ तमाम उम्र का, मान ले गया।
शिकस्त के रेज़े, गहरी चुभनरखते हैं “ताबीर”,
निगाहों को दे के अरमान, वो हमारी जान ले गया।
अलावा महबूब के भला इन आंखो का क्या काम,
यही सोच कर, वो शायद इन से, जुबान ले गया।
दिल ही दिल में हम दीदार-ए-यार में हैं।
चले आओ कि ये निगाहें इंतज़ार में हैं।
तलब सर पटकती है बेताब ओ बे-चैन,
जैसे जिंदगी की कश्ती मझधार में है।
गुज़रते बे-खौफ तेरी झलक की खातिर,
कू-ए-यार का रास्ताभरे बाज़ार में है।
बदन भटकता है वहां दर-ब-दर बेखौफ़,
चस्म-ए-तलबगार रौज़न-ए-दीवार में है।
इश्क़ ले आया है ये किस मोड़ पे आखिर,
जहन सराबों के सफ़र में बे-कार में है।
सर-ए-साहिल कहीं नज़र आता ही नहीं,
रूह डूबती हुयी ‘ताबीर’ ये अफ़कार में है।
पहरे जमाने के इक राह देखती ये नजरें,
ये खुबसूरत रंग इश्क़ के किरदार में हैं।
इश्क़ करना गुनाह है या ये गुनाहों की सज़ा है,
चेहरा आइना है दिल का फ़कत इतनी खता है।
जिस शख़्स से आबाद है, मेरे इश्क़ की दुनिया,
उस शख़्स को मेरी बर्बादी का हर राज़ पता है।
उसका होना, मेरा रोना ओ ना होना, मेरा खोना,
इन अश्कों का, इस दर्द का इलाज़, कुछ बता है।
गलतियों को, गलती से हुयी ग़लतियां समझना,
ये कुव्वत, फ़कत चन्द, रूहानियत को अता है।
गावं के जिस्म की खुबसूरत तराश याद आती है,
घर की मिट्टी की मुक़द्दस, वो छत याद आती है।
ज़ुगनु चले आते हैं, पहर -ए -शाम का पता देने,
वो सुबह की अज़ान सी कोयल की याद आती है।
इश्क़ में लिपटी ओ इश्क़ से गुथी, हर्फ ए तालीम,
बोलती दीवारें ओ खामोश तरबियत याद आती है।
खामोशी नहीं होती यहां, फक़त दिलों में “ताबीर”
महक ए हवा में मासूम कहकहों की याद आती है।
बीमार बेटे की ख़ातिर, जो तमाम रात जागती है,
मुझे माँ के पायल की,वो गुन्ज याद आती है।।
सुनो मुद्दतें गुजर जाती हैं, दिल को सुकून नहीं आता,
इश्क़ का रोग लगे, जो एक दफ़ा, ता-उम्र नहीं जाता।
वक़्त बे-आवाज़ गुजरता जाता है, रफ्तार से “ताबीर”,
इन निगाहों से दीदार ए महबूब का, शौक नहीं जाता।
जवानी में शुरु हुयी थी, ये कहानी बे-खौफ इश्क़ की,
आख़िरी दौर में भी आज़, उस का अक्स नहीं जाता।
तमाम हकीम बदल दिए, बे-हिसाब किया है इलाज़ भी,
वक़्त नजदीक है मौत का, वो मुझमें से क्यूँ नहीं जाता।
जख्मी रूह की फिर करवट बदल के देखते हैं,
लहू उठाओ, कोरे कागजों पे चीख़ के देखते हैं।
इश्क़ हो गया है गोया, कलम से, अपनी हमको,
दर्द ए इश्क़ की गली, फिर से गुज़र के देखते हैं।
उसे ख़ुदा लिखेंगें हम, एक दुआ कुबुल लिखेंगें,
नाकाम इश्क़ के हाथों, फिर से उजड़ के देखते है।
पीछे छोड़ आये थे जो, दहकती आग उस पहर,
दबी चिंगारी को हवा, फिर से झल के देखते हैं।
फिर से गुजरते हैं एक बार आगाज़ से अंजाम तक,
महबूब लिखा जहां-जहां, गुनाह लिख के देखते हैं।
जुदाई तो मुकद्दर ठहरी, राह- ए- इश्क़ में ‘ताबीर’,
कागजों पर ही सही, उसे ख़ुद का होते देखते हैं।
सुनो, मैं एक किताब लिखुंगी, इश्क़ बेबाक़ लिखुंगी,
हर पहर लिखुंगी उसमें, खुद को बे-हिसाब लिखुंगी।
मैं अपनी जिन्दगी का, सफ़र ए इश्क़ लिखुंगी,
लेकिन हर किस्से में “ताबीर” तेरा जिक्र लिखुंगी।
लिखुंगी एक नये दौर का, फलसफ़ा ए मोहब्बत,
मैं तेरे-मेरे नयन से रूह तक का, सफ़र लिखुंगी।
हर एक किस्सा बयां होगा, हंसी से अश्क़ तलक,
कलम मेरी, इश्क़ भी मेरा, अपनी तपिश लिखुंगी,
खुद को मुजरिम, तुझको गुनाह ए ख़लिश लिखुंगी।
सुनो, मैं एक किताब लिखुंगी, इश्क़ बेबाक़ लिखुंगी।।
अल्फाज़ ए दर्द मिलेगा, मोहब्बत- ओ- इश्क़ मिलेगा,
गर एहसास पाक हैं मोहब्बत में, तो हर लफ्ज़ मिलेगा।
मिलेगा बेशक़ यहां, वाक्या, तुम्हारी भी क़ैफ़ियतों का,
मिलेगा मन्ज़र- ए- सफ़र जुदा, जुदा हमसफ़र मिलेगा।
हर लफ्ज़ की कहानी है, हर अल्फाज़ कुछ कहता है,
कहकहे खोद कर देखो, तुम्हें कराहता शख़्स मिलेगा।
इश्क़ भी चाहिये, महबूब बहुत गहरा भी चाहिये,
बे-बाक है वो खुद, इश्क़ कान से बहरा भी चाहिये।
गुनाह पढ़ भी लूं गर उसके किरदार के “ताबीर”
सितम ये है कि उसे मेरी जुबान पर पहरा भी चाहिये।
किरदार से उसका कोई दूर का वास्ता ही नही,
भले स्याह हो कितना, उसे हमसफ़र जेहरा ही चाहिये।
जद्दोजहद चीखती रहें भले, गहराईयों मे मेरे रूह की,
खामोश रहे सतह से, उसे समन्दर ठहरा ही चाहिये।
किस्से मोहब्बत के कुछ यूं भी तमाम हुए,
पहले हो कर ख़ास, फिर वो भी आम हुए।
इश्क़ बहुत हैरान था, अपने कद को देखकर,
लो भला, बे-वजह ही यहां तो हम बदनाम हुए।
हमारा तो सिक्का चलता रहा एक जमाने से,
ये कौन सा दौर है जहां लोग अना के गुलाम हुए।
महबूब से हुए नाराज़ और रुख ए नशाखाना,
हुयी बकलोली महफ़िल में, कुछ ही जाम हुए ।
सुनो, महज़ बरदाश्त मेरे हिस्से में आ रही है,
तुम तो पहले भी गुमनाम थे, फिर से गुमनाम हुए।
किस गुनाह में ताबीर, तुम जाम पे जाम करते हो,
किस अना में इन्तजाम ए शाम, तमाम करते हो।
गुफ्तगु करते है चलो, रू ब रू, एक रोज़ उससे,
फ़कत इश्क़ है तम्हें और तुम एहतराम करते हो।
इज़हार ए जमीं करो, इकरार ए इश्क़ से तर कभी,
कहो, जीस्त अपनी तुम भी, महबूब के नाम करते हो।
वो इश्क़ था, या कमाल था,
दर्द का, एक ही, सवाल था।
जो गुज़र गया, वो वक़्त था,
जो ठहर गया, वो बबाल था।
बेहद ख़ूबसूरत एक विसाल था,
बे- इंतहा, इश्क़ की मिसाल था।
वो जो “ताबीर” का ख़्याल था,
मेरी ज़िन्दग़ी का बयान हाल था।
फिर से नहीं होगा, लाख़ करके भी इश्क़,
शिकायतें रहीं तेरी, खाक करके भी इश्क़।
पहली मुलाकात भी इश्क़, बात करके भी इश्क़,
गहरी रात तक इश्क़, सुबह तड़के भी इश्क़।
रूह तर रही तमाम उम्र मोहब्बत से उसकी,
मौत से पहले भी इश्क़, फक़त मरके भी इश्क़।
भला कब तक छुपता, आड़े इश्क़ के, फ़रेब भी,
लियाक़त अपनी जगह, हक़ीक़त अपनी जगह।
करके जुर्म, हर दफ़ा कर लेता है, ए’तिराफ़ वो,
गलतियां अपनी जगह, फ़ितरत अपनी जगह।
ले आती हूं, ए’तिबार, कि इश्क़ उसको भी है,
मु’आफ़ी अपनी जगह, ए’तिमाद अपनी जगह।
टूटा आईना, कभी जुड़ते देखा है, ‘ताबीर’ तुमने,
ज़ख्म अपनी जगह, ख़ुद-तरग़ीबी अपनी जगह।
सुकूं की तलाश, फक़त बन्दगी की तलब बाकी,
ए’तिज़ाल अपनी जगह, ‘इबादत अपनी जगह।
आँखे चार करने की, गुफ़्तगू ओ जान करने की,
सूकुं छीन लेने की, इश्क़- ए- एहसान करने की,
तेरी ख़्वाहिश जायज़ है, वक़्त आसान करने की,
मुझमें उतर जाने की, मेरा नुकसान करने की।।
रूह खींच कर जिस्म से, मुझे बे-जान करने की,
नाकाम कोशिश, दो जिस्म एक जान करने की,
ख़ुदा ही इश्क़ है “ताबीर”, ये पहचान करने की,
मुझमें उतर जाने की,मेरा नुकसान करने की।।
तेरी ख़्वाहिश जायज़ है, खुद को जवान करने की,
रूह-जमीं पे उतरने की, अपना मकान करने की,
ख़ुद को ख़ुदा करने की, मुझे रमजान करने की,
मुझमें उतर जाने की,मेरा नुकसान करने की।।
तेरी ख़्वाहिश जायज़ है, वक़्त आसान करने की,
मुझमें उतर जाने की, मेरा नुकसानकरने की।।
इश्क़, इश्क़ होता है, इश्क़ में कुछ बात होती है,
हर मुलाकात इश्क़ में, तज्दीद-ए-मुलाक़ात होती है।
उसके बदन की खुशबू से, महकती है, दरो दीवारें,
चांद लगता है मुतमुईन सा, पूनम की रात होती है।
टकराती हैं मुसलसल, उसकी सांसों से, मेरी सांसें,
मुक्कमल गुफ्तगू होती है, मौन में ही बात होती है।
उसकी नज़रों की तपिश, मेरे रुखसारों का तपना,
लज़्ज़त- ए- वस्ल का सुरूर, बदहाल जात होती है।
उसकी उंगलियों के लम्स से, महताब होता जिस्म,
हर आती जाती सांस, शिद्दत- ए- जज्बात होती है।
उसका चूमना पेशानी को, मेरे अधरो की कपकाहट,
महबूब की बाहों में फकत, तमाम कायनात होती है।
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