कविता: आँखें आईना होती हैं वुजूद का

सुनो,
आँखें आईना होती हैं वुजूद का
आँखें ही मन का दर्पण होती हैं ना
तुम ना हँसा करो
यूँ झूठी हँसी तस्वीरों में
मुझमें हुनर है इन्हें पढ़ लेने का
तुम तो जानते ही हो ना
माना लाज़िमी है महफ़िलों में
ज़रा नाटक भी
दरकार है नक़ाबी हो जाना भी
भीड़ में
मगर तुम्हारी आँखें साथ कहाँ देती हैं
ये मुझसे तो सब कह देती हैं ना
मैं मर मिटी थी
इन्हीं बोलती आँखो पर
इन्हीं घनी पलकों के तले
दिल हारा था मैंने
ये मुझसे तो ख़ूब बतियाती रही हैं ना
मैं वाक़िफ हूँ

तुम्हारी मुस्कुराहटों से भी
खिलखिलाहटों से भी
क़हक़हो से भी
और बनावटों से भी
कहाँ छुपी हैं तुम्हारी
छटपटाहटें मुझसे
सुनाई देती हैं मुझे
तुम्हारी कराहटें भी
तुम्हारी बेचैनियाँ भी सब
मुझे तो मालूम है ना
मैंने तो क़रीब से तुम्हें
हर्फ़ ब हर्फ़ पढ़ा है ना
तुम्हारे हर इक अंदाज़ की
मुझे तो सब ख़बर है ना
है ना…

जो दर्द छलकता है
इन आँखों से
यकीं मानो बहुत तकलीफ़ देता है
मगर वक्त भर देता है हर ज़ख्म
तुम्हें तो पता ही है ना
तुम वक्त को थोड़ा सा वक्त दे देना
मुझे यकीं है
भुला देगा
ये हर कड़वी याद
तुम्हारे जेहन से इक दिन
तुम्हारी आँखें
तुम्हारे होठों का
साथ देंगी उस दिन
तुम ज़रा इंतज़ार करना
बताओ तुम करोगे ना !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

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