मेरी कविताओं से प्रेम करने वाले,
यदि मुझसे नफ़रत करें
तो यह उतना ही स्वाभाविक है,
जितना ईश्वर से प्रेम करने वालों का
उसकी बनाई सृष्टि से नफ़रत करना।
असंगत है यह
परंतु शायद इसी असंगति में
सत्य का बीज छुपा है।
कई बार,
सृष्टि से प्रेम करते-करते
सृष्टा से प्रश्न करना,
रुष्ट हो जाना,
यहाँ तक कि उससे विमुख होना भी
उदाहरणीय है।
रचयिता को पूजना,
दीप जलाना,
मंत्र पढ़ना,
प्रार्थनाएँ करना,
उपासना में लीन रहना
सभी व्यर्थ है,
यदि उसकी बनाई सृष्टि को देख
तुम्हारे हृदय में प्रेम न जागे।
कैसे स्वीकार करेगा वह ईश्वर,
एक मलिन मन का अर्पण?
क्योंकि प्रेम करने में
और प्रेम बन जाने में
गहरा अंतर है।
प्रेममय हृदय
कभी किसी वस्तु,
जीव, प्राणी या तत्व से
घृणा नहीं कर सकता।
शायद वही प्रेम
उस सृष्टिकर्ता को भी
स्वीकार्य हो।
बशर्ते तुम्हें विश्वास हो
कि यह सम्पूर्ण जगत
उसी की रचना है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’