तृप्ति की देहलीज पर
काँटो को उगाती हुई
बुझी हुई आतिश को
फ़िर से लौ दिखाती हुई
किसी पहर, किसी घड़ी
हल्के कदम की आहट से
गर तुम रो दिये हो खुलकर
तुम्हें फ़िर से हँसाती हुई
चुपचाप अदृश्य
कहीं धीमे-धीमे
अंतर्मन में प्रवेश पाती हुई
गहरे उतरती हुई
हर मंज़र बदलती हुई…
सुनो तुम !
किसी रोज़ क़रीब से देखोगी
तो हैरान रह जाओगी
अचानक तुम उठोगी
आँच पर केतली रखते हुए
ख़ुद को गुनगुनाता पाओगी
अदरक की महक से इलायची
इलायची से गहरी साँस
गहरी साँस से पलकों का गिरना
ठीक उसी क्षण
वापस मुड़कर देखना
तुम जहाँ से उठी थीं
तुम अब वहाँ नहीं थीं
और तुम वो भी नहीं थीं
जो अभी अभी वहाँ थीं !!
–मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
