प्रकृति पर कविताएं : मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

शाम उतरी रहती है
दरीचे में मेरे
सूरज मेहमानों की तरह
कभी कभी आता है
बहती है एक शीतल नदी यहीं नज़दीक
सामने से गिरता झरना नज़र आता है
दरखत ध्यास्थ खड़े हैं चारों तरफ
आसमां परिंदों की अठखेलियों से
खिलखिलाता है
चाँदनी रात भर नाचती है आँगन में
चाँद फलक पर मंद-मंद मुस्कुराता है
प्रकृति लुटा रही है खुले हाथों से
मेरी रुह मेरा बदन तमाम नहाता है
कोसों तक ना सुनाई पड़ती
कोई भी आवाज़
मौन बोले मौन गूंजें मौन गुनगुनाता है
इस नदी की कल कल
गिरते झरने का संगीत
वो परिंदों की अठखेलियां
हवाओं की शरारतें
पत्तों की सरसराहट
फूलों का बुदबुआहट
जगनुओं की टिमटिमाहट
वो झींगरों का गुनगुनाना
रुह तर रखती हैं
ये सारी आवाज़ें
एहसास सपनों सा
हकीकत में नज़र आता है
जो है मुझमें खामोश
वो मुझसे बतियाता है
अनोखे अनुभवों की
यात्रा पर ले जाता है
सपना तो आख़िर सपना है
नींद खुली और टूट जाता है
मुसाफ़िर कागज़ कलम उठाता है
फिर शहर लौट आता है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

प्रक्रति पर कविताएं

मैंने
पेड़ों के सानिध्य
में जाना
पेड़ दुख की पीड़ा
खींच लेते हैं
किसी चुम्बक की भांति

केवल विज्ञान से नहीं
अनुभूति से जानना
कुछ देर कभी किसी सांझ
पुराने दरख़्त के समीप बैठना
तुम पीड़ा को बाहर खिंचते
और असीम शान्ति को
अपने भीतर प्रवेश करते पाओगे।

उत्साह से भर देते हैं,
पेड़ हमें जीवन तत्व देते हैं !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

प्रकृति के साथ अद्वितीय संवाद का आनंद,
प्रकृति के प्राकृतिक उपचारों द्वारा संग्रहित
ऊर्जा से उत्पन्न होने वाली मन की स्थिर दशा में
अनायास और सहजता से सम्भव है,
बस तुम्हारा इसके करीब होना काफ़ी है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

दरख़्त देखती हूं, तो हौसला मिलता है,
पतझड़ में भी सीना तान कर खड़े हैं।
ख़ुद टूटकर भी बांटते रहे हैं ने’मतें,
इनके इरादे इनकी हदों से भी बड़े हैं!!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

चांद, एकांतता सिखा गया कभी,
ध्यानस्थ दरख़्तों से मिला ध्यान।
सागर, चुपके से मौन सिखा गया,
कभी चुप चितवन से मिला ज्ञान !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

मिरे आंखो के मौसम फ़कत चार

मिरे आंखो के मौसम फ़कत चार,
बारिशें, समन्दर, तुम और पहाड़ !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

वो पूछती रही सरहदें इश्क़ की

वो पूछती रही सरहदें इश्क़ की,
मैं समंदर उस पर लुटाता रहा !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

प्रकृति ने जिस पल

प्रकृति ने जिस पल मानव के मन में
“तृष्णा” के अंकुर रोपे होंगे
कितनी कुटिल मुस्कान रही होगी
शरारती भी बिल्कुल वैसी
जैसे इक नौ सीखिए के सामने
किसी शतरंज की बिसात बिछाते इक परिपक्व विजेता की
सहयोग देने का वादा भी किया होगा
अनुज जानकर कि जब-जब फंसोगे
साथ पाओगे…..

परंतु जीतने के लिए तृष्णा से उबारना होगा
इस जगत के खेल में
कुछ अपने नाम कर लेने का मोह त्यागना होगा
मैं की अहंकारित प्रवृति से पार जाना होगा
जो मानव स्वभाव नहीं…
विपरीत बहना होगा धारा के
मन के
जीतना है तो हारना होगा
समर्पण शर्त है….
इसी तृष्णा के वशीभूत
ऊहापोह की स्थिति में मनुष्य झूझता रहता है
मन, बुद्धि और अहंकार के बीच
किसी लोलक की भांति
थोड़ा और पा लेने की
थोड़ा और जीत लेने की प्यास में
परंतु ये उम्र भर अतृप्त रखती है
किसी मृग मरीचिका की तरह !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

सावन में बैठ


सावन में बैठ फुहार तले
मन भीगे मचलती पीर…
कहां से आती ऋतु नयी
कौन भरता गगन में नीर !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

मैंने रास्ते से गुजरते सुना

मैंने रास्ते से गुजरते सुना,
सब के सब मचल रहे थे…
केतकी, मोगरा, गुलाब,
तेरी ख़ुशबू से जल रहे थे !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

प्रक्रति पर शायरी

पत्तों के
गालों पर मैंने
हया की लालियाँ देखीं…
हवा का
छेड़ना देखा
सिमटती डालियां देखीं !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

रूठ कर मछलियों का
साहिल पे सर पटकाना देखा…
समंदर का मनाना देखा
खींचकर ख़ुद से लिपटाना देखा !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

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