मन नदिया है क़ैद पंज़र से
ठिकाने ढूँढ़ लाता है
इसे मिलना हो समंदर से बहाने ढूँढ़ लाता है
पत्थर दिल से पत्थर भी
पिघल जाते हैं क़ुर्बत से
ये संगदिल के सख़्त संगर से दीवानें ढूँढ़ लाता है
खेतिहर की कुव्वतों सा
खोद देता है ग़म सारे
ये बीहड़ों के जर बंजर से खज़ाने ढूँढ़ लाता है
ख़ुदग़रज़ है ख़ुदपसंद है
बेखुदी का आलम ये है कि
ये शमा के बुझे झंजर से परवाने ढूँढ़ लाता है
तलबगार हो तो मुमकिन है
पा ले अमृत को ज़हर से
बंद आँखों के गहन अंबर से मयखाने ढूँढ़ लाता है
चुराकर नज़र तूफ़ानों से
हसीं ख़्वाब देख लेता है
ये मातम के स्याह मंज़र से तराने ढूँढ़ लाता है
निगाहों को झुकाकर भी
रुख सारे मोड़ देता है
ये दुश्मन के छुपे ख़ंजर से निशाने ढूँढ़ लाता है
मन नदिया है क़ैद पंज़र से
ठिकाने ढूँढ़ लाता है
जो मिलना हो समंदर से बहाने ढूँढ़ लाता है !!
–मोनिका वर्मा ‘मृणाल’