मर्द ऐसे ही होते हैं – कविता

‘मर्द ऐसे ही होते हैं’

एक भरे पूरे वृक्ष की डाली पर
कुछ पंछियों के झुंड में
अकेली बैठी एक चिड़िया
कतर रही थी
नोच-नोच कर अपने पंख
ज़ख्मी, आंसुओ से भीगी
खून से लथपथ
उसके माथे पर बेबसी थी
और आँख में टूटी हुई हसरत
उसके होठों पर दर्द की आहें थी
सरापे में बिखरी हुई शख़्सियत
वो ज़िंदगी से हारी थी
शायद मुकद्दर की मारी थी…
इसकी हालत मुझे ज़रा भी अलग नहीं लगी
एक शिकस्त खाई हुई ‘विवाहित स्त्री’ से
बिल्कुल इसी तरह नोचती है वो भी
अपने सपने, अपनी उड़ान के साधन
अपना आत्म-सम्मान, अपनी ख़ुद की पहचान
दिन-ब-दिन एक-एक करके रोज़- रोज़
बाकि बैठा झुंड मुझे बिल्कुल उस स्त्री के
पति परमेश्वर, उसका परिवार जैसे दिखाई पड़े
तमाशगीन, बेहिश और बे-दर्द
जो रोज़ उसके लिए नए इम्तिहान पैदा करते
अपनी संवेदनहीन जुबां से
एक नया तीर उसकी रूह के आर पार करते
और सुबूत देते कि
स्त्रियां कहीं भी पहुंच जाए
घरेलू स्त्री उत्पीड़न के लिए ही बनी है
तभी एक आवाज़ आई
शायद पति परमेश्वर थे
क्यूँ आंसू बहा रही हो ?
ज़रा इतना ही तो कहा है
कि मेरा कोई चरित्र नहीं
लेकिन तुम्हारे चरित्र का प्रमाण पत्र जब तब मैं तुम्हें दूंगा
तुम्हें मेरे मां बाप को इज्जत देनी पड़ेगी
और मैं तुम्हारे मां बाप को ये कभी नहीं दे पाऊंगा
ज़रा सी बात का बहाना चाहिए तुम्हें रोने का
क्या हुआ जो माँ ने तुम्हारे परिवार को गालियां दीं
क्या हुआ जो बाप ने मेरे कमाने का ताना दे दिया
सब कुछ तो करता हूँ तुम्हारे लिए
कपड़े जेवर रोटी मकान
क्या नहीं है तुम्हारे पास
पूरे दिन मेहनत करके आता हूँ किसके लिए
तुम्हारे लिए ही ना
तुम घर में पड़े पड़े करती ही क्या हो
क्या हुआ जो मैं किसी पराई स्त्री से बात करता हूँ
तुम्हें तो कोई कमी नहीं रखता
कभी गुस्से में एक दो थप्पड़ मार देना क्या गुनाह है
क्या हुआ जो तुम्हें मैं इंसान नहीं गुलाम समझता हूँ
अब बंद करो ये अपना मातम
मैं मर्द हूँ मर्द ऐसे ही होते हैं
जाओ ये मनहूस चेहरा धो कर आओ
और वो आसूं पोंछते उठ खड़ी हुई
कुकर दो सीटी दे चुका था
सबके लिए नाश्ता बनाना था
बच्चों को स्कूल तैयार करके भेजना था
सूजी हुई आँखें लिए
निबटाती हुई दिन भर के काम
मन में चल रहे द्वंद को
बार बार सर झटक कर हटाती हुई
कभी बर्तन सिंक में डालती हुई
कभी कपड़े इस्त्री करती हुई
दोपहर को क्या बनाना है ये सोचती हुई
और ख़ुद से कहती हुई
बिना दिहाड़ी की मजदूर ही होती हैं
हम सभ्य घरेलू औरतें
वो सही कहते हैं
वो मर्द हैं मर्द ऐसे ही होते हैं !!
मोनिका वर्मा ‘मृणाल’

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