इस दौर में
जहाँ प्रेम का प्रत्येक रूप
संदेह की दृष्टि से देखा जा सके
वहाँ माँ का प्रेम निसंदेह है
जब बच्चों के प्रेम में
बगैर किसी बाहरी अभिव्यक्ति के
चुपचाप अंतर्मन से खुशी-खुशी
बिना अन्न जल ग्रहण किए
ना जाने कितने उपवास कितने व्रत रखती है
अपने बच्चों के शुभ की कामना करती है
माँ साक्षात एक देवी सी मालूम पड़ती है
पहले खून से सींचती है, दूध से सींचती है
फिर तमाम उम्र अपने निस्वार्थ प्रेम से
ममता की छाँव में दुलारती
चलना सिखाती, दौड़ना सीखती
चिंतित होती, नज़र उतारती
अगर कोई आँच आ ज़ाए
सिंहनी की भांति दहाड़ती है
बच्चों के दुखों में ख़ुद रो पड़ती है
माँ होना एक तपस्या सा लगता है मुझे
माँ साक्षात एक देवी सी मालूम पड़ती है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
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