सुनो,
प्रेम में लौट आना तुम भी
जैसे ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर और हेमंत को लांघ कर
लौट आया है वसंत
तुम भी पार कर लेना
समंदर, पहाड़, झरने, नदियां, दरिया और ये दूरियां
सुनो लौट आना
जैसे सूख चुके दरख़्त पर बहारें लौट आईं हैं
अमलतास, कचनार, कदंब, पलाश लगे हैं झूमने
जैसे खेतों में फिर से सरसों लहलहाई है
आम्र मंजरियों की नशीली रतिगंध ने दी हैं दस्तकें
खेतों में गेहूं और जौं की बालियां खिलखिलाई हैं
जैसे परिंदें अपने वतन वापसी की राह में चल पड़े हैं
सुनो तुम भी लौटने की राह पकड़ना
मरुस्थल हो चुके अरमानों को जल-थल करना
दीवारों की खूटियों पे टंगे हुए ख़्वाब समेटने हैं तुम्हें
सहराओं सी वीरान हुई आँखों में अक्स का रंग भरना
सुनो वसंत लौट आया है प्रेम में तुम भी चल पड़ना
छोड़ कर तमाम बखेड़े अब घर का रुख करना !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
हाँ कुछ कुछ वसंत सी हो तुम
कुदरत ने जो भी बख़्श दिया
वो ही जचता है तुम पर
ख़ुद ही जेवर हो इस जमीं का
सादगी के श्रृंगार से सजी हो तुम
हां कुछ कुछ वसंत सी हो तुम
कभी ग्रीष्म की तपती दोपहरी में
बहती ठंडी हेमंत सी हो तुम
किस हिस्से में खोजूं मैं तुम्हें
बदन से बहुत दूर रुह में बसी हो तुम
मुझ मृत में जीवंत सी हो तुम
मेरे अन्दर असीम और अनंत सी हो तुम
हाँ कुछ कुछ वसंत सी हो तुम !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
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