कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना, मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना।
तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन, तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी, कुछ मुझे भी ख़राब होना था।
मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद, उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई।
दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को, और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ मैं।
डुबो दी थी जहाँ तूफ़ाँ ने कश्ती, वहाँ सब थे ख़ुदा क्या ना-ख़ुदा क्या ।
हाए वो वक़्त कि जब बे-पिए मद-होशी थी, हाए ये वक़्त कि अब पी के भी मख़्मूर नहीं ।
हिन्दू चला गया न मुसलमाँ चला गया, इंसाँ की जुस्तुजू में इक इंसाँ चला गया।
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