आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे, ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे।
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए, साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था।
आईने में वो देख रहे थे बहार-ए-हुस्न, आया मिरा ख़याल तो शर्मा के रह गए।
कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद, आईना ग़ौर से तू ने कभी देखा ही नहीं।
देखना अच्छा नहीं ज़ानू पे रख कर आइना, दोनों नाज़ुक हैं न रखियो आईने पर आइना।
मुश्किल बहुत पड़ेगी बराबर की चोट है, आईना देखिएगा ज़रा देख-भाल के।
चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो, आइना झूट बोलता ही नहीं।
पहले तो मेरी याद से आई हया उन्हें, फिर आइने में चूम लिया अपने-आप को ।
हम सब आईना-दर-आईना-दर-आईना हैं, क्या ख़बर कौन कहाँ किस की तरफ़ देखता है।
इक बार जो टूटे तो कभी जुड़ नहीं सकता, आईना नहीं दिल मगर आईना-नुमा है।
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