ठहराव सुकून है,
कभी कभी थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
बांध देना कभी किसी तारे पर अपनी निगाह,
कभी चांद की रोशनी में होश से नहाना तुम।
रोक देना भागते हुए लम्हों को किसी पहर,
किसी रात महबूब से ख्यालों में बतियाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
उड़ा देना कभी धुएं के इक कश में गम तमाम,
कभी तन्हा बैठ जश्न ए ज़िंदगी को मनाना तुम।
करना सैर ज़माने की जब कभी मिले फुरसत,
फक़त दीया बुझने से पहले घर लौट जाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
सुनना जरा गौर से परिंदों की आवाज़ें भी कभी,
कभी बहती नदी के साथ – साथ गुनगुनाना तुम।
खोल देना सारे पंख मन के आंखें बंद करके कभी,
सारी सरहदों के पार अपनी इक दुनियां बनाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
कभी देखना आंखों के दायरे के बाहर का मंज़र भी,
कभी पढ़ना मौन को कभी ख़ुद भी मौन हो जाना तुम।
खोजना पत्थरों के बीच भी छुपा इन्सान किसी कोने में,
फकत उसकी झलक पाकर फिर मोम हो जाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
झांकना बूढ़ी आंखों के भीतर भी बैठकर पास कभी,
इक अनंत यात्रा की झलक पाकर हैरां हो जाना तुम।
मांगना तजुर्बे ज़िंदगी के कुछ पुरानी रूहों से अकसर,
फिर बैठकर बहुत सी जटिल पहेलियां सुलझाना तुम ।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
कभी आकाश भी देना अपने सपनों को हकीकत से परे,
भीड़ को जाने देना कभी कभी अपना साथ निभाना तुम।
तोड़ना कभी वो जंजीर भी जो रोक देना चाहती हो तुम्हें,
ज़िंदगी को जीना भी कभी, कभी इसे उत्सव बनाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
डूबने देना अपने आप को कभी गहरे सागर में ज़िंदगी के,
कभी इसकी लहरों पे काग़ज़ की कश्ती भी तैराना तुम।
देखना अपनी नज़र से भी अपना खुद का वुजूद कभी,
फिर उसके खिलाफ़ दुनियां की बात भी झुठलाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
खोल देना हर राज़ कभी कोरे काग़ज़ पर कलम से,
कभी किसी ग़ज़ल में हाल ए दिल बयां कर जाना तुम।
बुन देना कभी इश्क़ के पूरे सफ़र को चन्द लफ़्ज़ों में,
इक मतले में कभी कभी तमाम ज़िंदगी कह जाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
गुजरना उन रास्तों को भी जो अनजान हो अनकहे हो,
देख के मंजर परखकर खुशबू चाहे लौट भी आना तुम।
दो घूंट भी पी लेना मोहब्बत के नाम तो कभी गम के,
कभी बेहोशी की हद से गुजरकर भी होश को पाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
हवा दे देना उमड़ते सैलाब को भी जिस्म के भीतर कभी,
कभी भावनाओं की आंधी संग ख़ुद भी बह जाना तुम।
कभी तोड़ देना बांध भी, बंदिशे भी, हदें भी, सरहदें भी,
देखना कभी आईनें में और ख़ुद पे ही बहक जाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
पढ़ लेना कभी कभी कहकहों के पीछे की कराहटें,
कभी दर्द के बीच खुशी की लहर भी ढूंढ लाना तुम,
बैठ जाना कभी स्याह रातों में सितारों के साथ भी,
कभी अंधेरों में उतर कर रोशनी ख़ोज लाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
बख्श देना कभी कभी किसी के नाकाबिल गुनाह भी,
कभी वुजूद के दायरे से उठकर इक इंसां हो जाना तुम।
हो जाना खफा कभी कभी ख़ुद अपने भीतर के शख्स से,
कभी कभी बैठाकर अपने पास ख़ुद को ही मनाना तुम।
ठहराव सुकून है,
कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
मिले जब भी फुरसत तुम्हें
इस बेवजह दौड़ती ज़िंदगी से,
तकना शून्य को और मुस्कुराना तुम।
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
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