अपने वक़्त के बहुत बड़े शायर, जिनका नाम शायरी के जगत में बहुत सम्मान से लिया जाता है फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्म 13 फ़रवरी 1911 को पकिस्तान के पंजाब प्रान्त के एक जिला सियालकोट के नारोवेला (वर्तमान में फैज़ नगर ) के कादिर खां नाम की एक छोटी सी जगह में हुआ था, फैज़ के पिता चौधरी मुहम्मद सुलतान ख़ां पहले एक किसान थे, जो बाद में बैरिस्टर बने। फैज़ की माता का नाम सुलतान फातिमा था।
Faiz Ahmad Faiz 2 Line Shayari | फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ दो लाइन शायरी
“रात यूँ दिल में तिरी खोई हुई याद आई,
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए”।
“और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा”।
“दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है,
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है”।
“बे-दम हुए बीमार दवा क्यूँ नहीं देते,
तुम अच्छे मसीहा हो शिफ़ा क्यूँ नहीं देते”।
“वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे,
शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने”
“न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ,
इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं”।
“गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले,
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले”।
“तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ी,
तल्ख़ी-ए-मय को तेज़-तर कर दे”।
“दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के,
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के”।
“इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन,
देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के”।
“तुम आए हो न शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है,
तलाश में है सहर बार बार गुज़री है”।
“जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी,
बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाइयाँ क्या क्या”।
“मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है,
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने”।
“कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब,
आज तुम याद बे-हिसाब आए”।
“वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था,
वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है”।
“आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान,
भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे”।
“मक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जचा ही नहीं,
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले”।
“जानता है कि वो न आएँगे,
फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल”।
”आप की याद आती रही रात भर,
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर”।
“आए कुछ अब्र कुछ शराब आए,
इस के ब’अद आए जो अज़ाब आए”।
“सारी दुनिया से दूर हो जाए,
जो ज़रा तेरे पास हो बैठे”।
“जो ख़ुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे,
हम शैख़ न लीडर न मुसाहिब न सहाफ़ी”।
” ‘फ़ैज़’ थी राह सर-ब-सर मंज़िल,
हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए”।
“रक़्स-ए-मय तेज़ करो साज़ की लय तेज़ करो,
सू-ए-मय-ख़ाना सफ़ीरान-ए-हरम आते हैं”।
“इन में लहू जला हो हमारा कि जान ओ दिल,
महफ़िल में कुछ चराग़ फ़रोज़ाँ हुए तो हैं”।
“सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं,
हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं”।
“यूँ सजा चाँद कि झलका तिरे अंदाज़ का रंग,
यूँ फ़ज़ा महकी कि बदला मिरे हमराज़ का रंग”।
“जो ख़ुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे,
उन्हीं के फ़ैज़ से बाज़ार-ए-अक़्ल रौशन है”।
“तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले,
अपने कुछ और भी सहारे थे”।
“दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया,
तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के”।
“जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी,
जब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई”।
“दिल से तो हर मोआमला कर के चले थे साफ़ हम,
कहने में उन के सामने बात बदल बदल गई”।
“हम ऐसे सादा-दिलों की नियाज़-मंदी से,
बुतों ने की हैं जहाँ में ख़ुदाइयाँ क्या क्या”।
“गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा,
गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं”।
“मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से,
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती”।
“हाँ नुक्ता-वरो लाओ लब-ओ-दिल की गवाही,
हाँ नग़्मागरो साज़-ए-सदा क्यूँ नहीं देते”।
“न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है,
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है”।
“सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो,
बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है”।
“हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं,
तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं”।
“ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर,
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं”।
“वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया,
वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि ख़याल-ए-रोज़-ए-जज़ा गया”।
“ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम,
विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं”।
“चंग ओ नय रंग पे थे अपने लहू के दम से,
दिल ने लय बदली तो मद्धम हुआ हर साज़ का रंग”।
“अगर शरर है तो भड़के जो फूल है तो खिले,
तरह तरह की तलब तेरे रंग-ए-लब से है”।
“ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक,
कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे”।
“उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर,
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं”।
“चमन पे ग़ारत-ए-गुल-चीं से जाने क्या गुज़री,
क़फ़स से आज सबा बे-क़रार गुज़री है”।
“वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी,
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं”।
“शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की,
शुक्र है ज़िंदगी तबाह न की”।
“जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम,
जब भी हम ख़ानुमाँ-ख़राब आए”।
“करो कज जबीं पे सर-ए-कफ़न मिरे क़ातिलों को गुमाँ न हो,
कि ग़ुरूर-ए-इश्क़ का बाँकपन पस-ए-मर्ग हम ने भुला दिया”।
“जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए,
वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया”।
“हम अहल-ए-क़फ़स तन्हा भी नहीं हर रोज़ नसीम-ए-सुब्ह-ए-वतन,
यादों से मोअत्तर आती है अश्कों से मुनव्वर जाती है”।
“मिरी जान आज का ग़म न कर कि न जाने कातिब-ए-वक़्त ने,
किसी अपने कल में भी भूल कर कहीं लिख रखी हों मसर्रतें”।
“हम सहल-तलब कौन से फ़रहाद थे लेकिन,
अब शहर में तेरे कोई हम सा भी कहाँ है”।
“ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू,
सुलूक जिस से किया हम ने आशिक़ाना किया”।
“जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई,
सर-ए-आम जब हुए मुद्दई तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-वफ़ा गया”।
“इन में लहू जला हो हमारा कि जान ओ दिल,
महफ़िल में कुछ चराग़ फ़रोज़ाँ हुए तो हैं”।
“हम से कहते हैं चमन वाले ग़रीबान-ए-चमन,
तुम कोई अच्छा सा रख लो अपने वीराने का नाम”।
“शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई,
दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई”।
“अदा-ए-हुस्न की मासूमियत को कम कर दे,
गुनाहगार-ए-नज़र को हिजाब आता है”।
“मेरी ख़ामोशियों में लर्ज़ां है,
मेरे नालों की गुम-शुदा आवाज़”।
“नहीं शिकायत-ए-हिज्राँ कि इस वसीले से,
हम उन से रिश्ता-ए-दिल उस्तुवार करते रहे”।
“अपनी नज़रें बिखेर दे साक़ी,
मय ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार नहीं”।
“उन्हीं के फ़ैज़ से बाज़ार-ए-अक़्ल रौशन है,
जो गाह गाह जुनूँ इख़्तियार करते रहे”।
“कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत,
चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे”।
“फ़रेब-ए-आरज़ू की सहल-अँगारी नहीं जाती,
हम अपने दिल की धड़कन को तिरी आवाज़-ए-पा समझे”।
“फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएँ जलीं,
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम”।
“कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी,
सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी”।
“ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में,
हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं”।
“नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही,
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही”।
“हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे,
जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे”।
“मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे,
दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए”।
“मय-ख़ाना सलामत है तो हम सुर्ख़ी-ए-मय से,
तज़ईन-ए-दर-ओ-बाम-ए-हरम करते रहेंगे”।
“जवाँ-मर्दी उसी रिफ़अत पे पहुँची,
जहाँ से बुज़दिली ने जस्त की थी”।
“गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़ारा का असर तो देखो,
गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-तर तो देखो”।
“ज़ेर-ए-लब है अभी तबस्सुम-ए-दोस्त,
मुंतशिर जल्वा-ए-बहार नहीं”।
“हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ,
दिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह”।
“इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक,
इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे”।
“ख़ैर दोज़ख़ में मय मिले न मिले,
शैख़-साहब से जाँ तो छुटेगी”।
“तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं,
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं”।
“और क्या देखने को बाक़ी है,
आप से दिल लगा के देख लिया”।
Faiz Ahmad Faiz Ghazal | फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ग़ज़ल
“मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात,
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है।
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात,
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है।
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए,
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए।
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।
अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म,
रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए।
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म,
ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए।
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से,
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से।
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे,
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे।
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग”।।
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़