धुआँ- धुआँ है ज़िंदगी
कश- कश में अलाव है
ना दिखती कोई मंज़िल मुझे
ना दिखता कहीं पड़ाव है
बेचैनियाँ कम ना हुईं
कमबख्त इस दिल की भी
जो मिलता गया ज़िंदगी में
वो ख़ास से हुआ ख़ाक है
रात को सोचूँ सुबह की मानिंद
सुबह को शाम की आस है
जो पास रहा वो भूल गया
जो दूर हुआ वो याद है
हयात की इस लज़्जत ने
रुह से भी किया रू-ब-रू
अब ढूँढ़ रहा हूँ जाने क्या
ना जाने किसकी तलाश है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
ऐ ज़िंदगी !
तुझे क्या पता
तुने कहां मुझे
पहुंचा दिया
मुझे ख़बर दी ना
रास्तों की
मेरी राहों में
जाल बिछा दिया
तुने खुशियां दी
गिनकर मुझे
गमों को ख़ैरात सा
लूटा दिया
अपने दे कर
दग़ाबाज़ मुझे
गैरों से उम्मीद को
मिटा दिया
देकर मोहब्बत
किया एहसान
फिर किसी ग़ैर का
उसे बना दिया
बेचारगी से देखती है
दुनिया मुझे
दाग़ दामन पर
ऐसा लगा दिया
मुझे बख़्श दे अब
ना और सता
थे गुनाह अगर
तो हिसाब दिखा
मेरे सवालों पर
ना मुंह बना
कर भी दे अब
सुकूं अता
ऐ ज़िंदगी !
मुझे कुछ तो बता
दे रास्ता
या तू कर दे फ़ना !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
रोज़ लिखता हूँ ज़िंदगी को मैं
ये रोज़ मुझे नयी सी लगती है
किसी पुख़्ता नशा-आवर जज़्म सी लगती है
ज़िंदगी इक खूबसूरत आज़ाद नज़्म सी लगती है
रोज़ उतरती है किसी मासूम परिंदें सी मेरे शानों पर
मौज़ूअ हर दफा नया, नया उनवाँ सी लगती है
ना रदीफ़ से बँधी हुई ना क़ाफ़िये से दरकार इसे
मिसरा कोई भी हो रुक्न से गुरेजाँ सी लगती है
पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह सम्पूर्ण शीतल करती हुई
बिना साज़ के कोई मुकम्मल गीत लिखा सी लगती है
पहली बारिश से पाकीज़ा हर चीज़ नई हो जैसे
पुराने पतझड़ों में इक अकेला फूल खिला सी लगती है
पुरानी नज़्म से हर नई नज़्म की तरह
पहले से बेहतर सी लगती है ज़िंदगी…
रोज़ लिखता हूँ ज़िंदगी को मैं
ये रोज़ मुझे नयी सी लगती है
किसी पुख़्ता नशा-आवर जज़्म सी लगती है
सवाल सपनों के आँखों में हैरां निशां लिए खड़ी हुई
हसीन शाम की देहलीज पर हौले से पाँव रखती हुई
घूँघट मुखड़े पे गिराए नई दुल्हन की आमद हो जैसे
मेंहदी की ख़ुशबू हवा में चंदन हल्दी संग उड़ती हुई
नूर परियों सा सँभाले हुए बिना श्रृंगार के सजी सँवरी
हुस्न के हथियार थामे पायल की छन-छन करती हुई
हया की लालिमा संग आसमाँ पर ठहरी हुई सी कोई साँझ
रोज़ नई जमीं पर नया आसमान सा बुनती हुई
पुराने दर्दों से राहत, नये आग़ाज़ सी पुरसुकूं
दिल की दवा-दारू सी लगती है ज़िंदगी…
रोज़ लिखता हूँ ज़िंदगी को मैं
ये रोज़ मुझे नयी सी लगती है
किसी पुख़्ता नशा-आवर जज़्म सी लगती है
आशनाईयाँ कलम से अच्छी होती है मृणाल
ज़िंदगी इक ख़ूबसूरत आज़ाद नज़्म सी लगती है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
सुकून फ़कीरी के चेहरे पर
देखा है मैंने
संतुष्टि से बड़ा
और कोई हमराज़ नहीं है
महत्वाकांक्षों में भूल चुके
अस्तित्व को
या जिसको डस लिया हो
इच्छाओं के नाग ने
उसके जीने में ज़िंदगी को
बेशक कोई रियाज़ नहीं है
वरना खुशियां किसी चीज़ की
मोहताज़ नहीं है
कुछ वक्त निकालकर
मिला कर ख़ुद से भी
कितने दिन का मेहमान है
जो कल था वो आज़ नहीं है
तेरे बगैर भी चल रही थी
दुनियां चलेगी तेरे बाद भी
फुरसत से बैठ और देख तमाशा
मौज़ है ज़िंदगी
ठहर जाना
इसका मिजाज़ नहीं है
जिसने चुन लिया रास्ता
भीतर सरकने का
अन्तर्मन में उतरने का
उससे बड़ा धनराज नहीं है
नाप लेना जमीं के हिस्से
ख़रीद लेना कायनात सारी
कफन में जेब
शमशान से आगे का नक्शा
दोनों किसी के पास नहीं
सुकून फ़कीरी के चेहरे पर
देखा है मैंने
संतुष्टि से बड़ा
और कोई हमराज़ नहीं है !!
-मोनिका वर्मा ‘मृणाल’
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