पुरूष कविता
समन्दर पी कर भी प्रेम काकुछ पुरूष रह जाते हैंमरुस्थलबंजर के बंजरनहीं फूटती उनमें कोंपलेंवो रह जाते हैं जीर्ण बीजदेह की असंख्य आकांक्षाएँरखती हैं उनके पौरूष कोस्त्री के प्रेम के अल्हड़पन से वंचितचुलबुलाहट से अनछुआनेत्रों के आलिंगन से अनभिज्ञकिसी सूख चुके गमले से कठोरकिसी कट चुके पेड़ से ठूंठप्रेम उगता रहता हैदूब की भांति इर्द … Read more