'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में
कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में।
ज़ख़्म कितने तिरी चाहत से मिले हैं मुझ को, सोचता हूँ कि कहूँ तुझ से मगर जाने दे।
हिचकियाँ रात दर्द तन्हाई, आ भी जाओ तसल्लियाँ दे दो।
दिल पर चोट पड़ी है तब तो आह लबों तक आई है, यूँ ही छन से बोल उठना तो शीशे का दस्तूर नहीं।
कभी सहर तो कभी शाम ले गया मुझ से, तुम्हारा दर्द कई काम ले गया मुझ से।
वक़्त हर ज़ख़्म का मरहम तो नहीं बन सकता, दर्द कुछ होते हैं ता-उम्र रुलाने वाले।
ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे, सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है।
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