बाद-ए-फ़ना भी है मरज़-ए-इश्क़ का असर, देखो कि रंग ज़र्द है मेरे ग़ुबार का
।
सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फना के पहरे में,
हिज्र के दलाल और आंगन में बस एक साया जिंदा था।
ध्यान में उसका फना हो कर कोई मुंह देख ले,
दिल वो आईना नहीं जो हर कोई मुंह देख ले।
परवाना गिर्द घूम के जब हो चुका फना,
अब सारी रात शमा लगन में जली तो क्या।
दुनिया ने किस का राह-ए-फना में दिया है साथ,
तुम भी चले चलो यूँ ही जब तक चली चले।
वो जिनकी लौ से हजारों चराग जलते थे,
चराग़ बाद-ए-फना ने बुझाये हैं क्या क्या।
फना होने में सोज-ए-शमा की मिन्नत कैसी,
जले जो आग में अपनी उसे परवाना कहते हैं।
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