लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक,
ऊँची है किस क़दर तिरी नीची निगाह भी।
ज़िक्र था रंग-ओ-बू का और दिल में,
तेरी तस्वीर उतरती जाती थी
।
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
।
कोई समझे तो एक बात कहूँ,
इश्क़ तौफ़ीक़ है गुनाह नहीं।
मौत का भी इलाज हो शायद,
ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं।
हम से क्या हो सका मोहब्बत में,
ख़ैर तुम ने तो बेवफ़ाई की
।
ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त,
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में।
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