कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया,
मुझ से बिछड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था
।
जानता हूँ एक ऐसे शख़्स को मैं भी 'मुनीर',
ग़म से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं
।
मुद्दत के ब'अद आज उसे देख कर 'मुनीर',
इक बार दिल तो धड़का मगर फिर सँभल गया
।
ख़याल जिस का था मुझे, ख़याल में मिला मुझे,
सवाल का जवाब भी, सवाल में मिला मुझे
।
इक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझ को,
मैं एक दरिया के पार उतरा तो मैं ने देखा
।
आदत ही बना ली है तुम ने तो 'मुनीर' अपनी,
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना
।
वक़्त किस तेज़ी से गुज़रा रोज़-मर्रा में 'मुनीर', आज कल होता गया और दिन हवा होते गए।
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