निकल आये उसके दिल से आज़, भीड़ से हमें घबराहट होती है।

वो मेरे बे रौनक चेहरे की वजह पूछता रहा, जाओ कह दो उसे, बेवफ़ाई उजाड़ देती है।

जहन में गूंजते तो हैं ये मुसलसल, कुछ दर्द मगर बहुत गूंगे होते हैं।

यक़ीनन जुदाई में मरता नहीं है महबूब 'ताबीर' लेकिन मर मर के जीने को कैसे ज़िन्दग़ी कहूं।

सोने के पिंजरे से कहीं लाख़ बेहतर, फकीरी, खुला आसमां, उड़ते पर।

मिरे आंखो के मौसम फ़कत चार, बारिशें, समन्दर, तुम ओ पहाड़।

बन्दिगी, बंदिशों का काम नहीं 'ताबीर' ,  ये तो वो शय है, जो आज़ाद उतरती है।

दुनिया पीतल की है सोने सी क्यूं लगती है?  बरत कर भी इंसान क्यूं वहम में रहता है?

ज़िंदगी को, ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश ज़रूरी नही,  कुछ मजबूरियां भी, इंसान को ज़िंदा रखती हैं।

दर्द आंसुओ में बह जाना ही इंसान के लिए बेहतर है,  दिल में हब्स का ठहर जाना किसी मौत से बद्तर है।

"वक्त, प्रेम, वफा कुछ तो वो देता मुझे,  महज़ आंसू के साथ कैसे गुज़ारा करूं।"